एक कन्या ने अपने पिता से कहा, 'मैं किसी पुरातत्वविद् से विवाह करना चाहती हूं।'  पिता ने पूछा, 'क्यों?' कन्या बोली, 'पिताजी! पुरातत्वविद् ही एक ऍसा व्यक्ति होता है जो पुरानी चीजों को ज्यादा मूल्य देता है। मैं भी ज्यों-ज्यों पुरानी होती जाऊंगी, बूढ़ी होती जाऊंगी, मेरा मूल्य भी बढ़ता जाएगा। वह मेरे से नफरत भी नहीं करेगा। पुरातत्वविद् यह नहीं देखता कि वस्तु कितनी सुन्दर है, कितनी असुन्दर है। वह इतना देखता है कि वस्तु कितनी पुरानी है। यह उसके मूल्यांकन की दृष्टि होती है।'  
कहने का अर्थ यह कि मूल्यांकन का अपना-अपना दृष्टिकोण होता है। मूल्यांकन का हमारा भी एक दृष्टिकोण है। अध्यात्म की साधना करने वाले व्यक्ति का अपना एक दृष्टिकोण होता है मूल्यांकन का और वह उसका स्वयं का दृष्टिकोण होता है, किसी से उधार लिया हुआ नहीं। उसका दृष्टिकोण बदले, चरित्र बदले। वह पुराना ही न रहे, नया बने। पुरानेपन का आग्रह छूटे। साधना में पुरातत्वविद् की दृष्टि काम नहीं देती। वहां नयेपन का आयाम खुलता है और सदा नया बना रहने की आकांक्षा बनी रहती है।  
प्रत्येक समझदार आदमी का प्रयत्न सप्रयोजन होता है। ध्यान की साधना करने वाले व्यक्ति का साध्य है- रूपान्तरण दृष्टि का रूपान्तरण, चरित्र का रूपान्तरण। 'अहं' को 'अर्हम्' में बदलना। अहं और अर्हम् में केवल एक मात्रा का अन्तर है। साधक अहं को छोड़कर अर्हम् बनना चाहता है। एक मात्रा का अर्जन करना है। अहम् पर ऊध्र्व र लगे, ऐसा प्रयत्न करना है। तब साधना सफल हो जाती है।