मनुष्य को जानना चाहिए कि भगवान कृष्ण ब्रह्मांड के सभी लोकों के परम स्वामी हैं। वे सृष्टि के पूर्व थे और अपनी सृष्टि से भिन्न हैं। सारे देवता इसी भौतिक जगत में उत्पन्न हुए, किंतु कृष्ण अजन्मा हैं, फलत: वे ब्रह्मा और शिव जैसे देवताओं से भी भिन्न हैं। और चूंकि वे ब्रह्मा, शिव तथा अन्य समस्त देवताओं के स्रष्टा हैं अत: समस्त लोकों के परम पुरुष हैं। परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करने के लिए मनुष्य को समस्त पापकर्मो से मुक्त होना चाहिए। जैसे कि भगवद्गीता में कहा गया है, उन्हें केवल भक्ति के द्वारा जाना जा सकता है, किसी अन्य साधन से नहीं। मनुष्य को चाहिए कि वह कृष्ण को साधारण मनुष्य न समझे।  
 इस जगत में शुभ या अशुभ वस्तुओं का बोध बहुत कुछ मनोधर्म है क्योंकि इस भौतिक जगत में कुछ भी शुभ नहीं है। प्रत्येक वस्तु अशुभ है। क्योंकि प्रकृति स्वयं अशुभ है। हम इसे शुभ मानने की कल्पना मात्र करते हैं। वास्तविक मंगल तो पूर्ण भक्ति और सेवाभाव से युक्त कृष्णभावनामृत पर ही निर्भर करता है। अत: यदि हम तनिक भी चाहते हैं कि हमारे कर्म शुद्ध हों, तो हमें परमेश्वर की आज्ञा से कर्म करना होगा। ऐसी आज्ञा श्रीमद्भागवत तथा श्रीमद्गीता जैसे शास्त्रों  या प्रामाणिक गुरु से प्राप्त की जा सकती है। चूंकि गुरु भगवान का प्रतिनिधि होता है, अत: उसकी आज्ञा प्रत्यक्षत: परमेश्वर की आज्ञा होती है। गुरु, साधु तथा शास्त्र  एक ही प्रकार से आज्ञा देते हैं। इन तीनों स्रेतों में कोई विरोध नहीं होता। कर्म संपन्न करते हुए भक्त की दिव्य मनोवृत्ति वैराग्य की होती है, जिसे संन्यास कहते हैं। जैसा कि भगवद्गीता के छठे अध्याय के प्रथम श्लोक में कहा गया है कि जो भगवान का आदेश मानकर कोई कर्त्तव्य करता है और जो अपने कर्मफलों की शरण ग्रहण नहीं करता, वही असली संन्यासी है। जो भगवान के निर्देशानुसार कर्म करता है, वास्तव में संन्यासी और योगी वही है।